८.१ अर्जुन उवाच
अधि भूतं च किं प्रोक्तम, अधि दैवं किं उच्च्यते ?
हे पुरुषोत्तम श्री कृष्ण,"अधि भूत" किसे कहते हैं, और आपने "अधि दैव" किसे कहा है?
८.२ अर्जुन उवाच
अधि यज्ञः कथं को अत्र देहे अस्मिन मधु सूदन
प्रयाण काले च कथं ज्ञयो असि नियतात्म भिः
हे मधु-सूदन श्री कृष्ण, आप के द्वारा जिसे "अधि यज्ञ" कहा गया है, जो इस देह में सदैव होता रहता है, वह क्या है? और इस देह धारण के काल की समाप्ति पर ज्ञात होने वाले, अर्थात आत्म ज्ञान में स्थिर होने की दशा क्या है?
८.४ श्री भगवन उवाच
"अधि भूतं" क्षरो भावः, पुरुष श्च "अधि दैव" तं
"अधि यज्ञ" अहम् वा अत्र देहे, देह भृताम वर
श्री कृष्ण उत्तर में कहते हैं, कि देह धारियों में श्रेष्ठ हे अर्जुन, भाव (भौतिक या सांसारिक प्रभाव) अर्थात प्रतिक्रियात्मक या सक्रिय तत्व जो स्वभाव नहीं है, उसका क्षय या कम होना ही "अधि भूत" है. इसका अर्थ है कि कर्म, (स्वभाव से या) मौलिक होना चाहिए, भाव से (मजबूरी, दिखावा, अंहकार, या भय या किसी अपेक्षा के कारण) नहीं. इसका अर्थ यह भी है कि (बौद्धिक) कर्म से (मन का) स्वभाव कभी नष्ट न हो. स्वान्तः सुखाय निष्काम कर्म उसका एक उदाहरण है. स्वभाव की रक्षा कर पाना ही वीरता है. अर्थात जो सही गलत को निष्पक्ष जानता है, दृढ निश्चयी है, वही वीर है.
मन की शुद्धता अर्थात निर्मल पुरुष ही "अधि दैव" है. मन की शुद्धता, आत्म ज्ञान में प्रवृत्ति, भगवत भक्ति, और सांसारिक तत्वों के मूल कारण को जान लेने के संतोष से मिलती है. एक बार मन जब साफ़ होने लगता है, तो वह दुबारा सांसारिक गंदगी में नहीं जाना चाहता. उसकी इच्छाएं अपने आप शांत होने लगती हैं और देवताओं के सहयोग से वह इसमें सफल भी हो जाता है.
हे देह धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, मेरे अतिरिक्त "अधि यज्ञ" कौन है? अर्थात इस देह में "अधि यज्ञ" मैं (परमात्मा का स्वरुप) हूँ. देह की समाप्ति केवल एक जीवन या अनगिनित जीवन-मृत्यु की बात नहीं है, जब जब, प्राणी की चेतना या मन, पुनः देह धारण करता रहता है, उसे अपने मन में आत्म-ज्ञान का अनुभव नहीं होता. और, जब उसका ध्यान, इस ओर जाता है, उसका देह त्याग या प्रयाण या मोक्ष सफल हो जाता है.
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