Wednesday 16 September 2009

१६ सितम्बर २००९ >> इच्छा (इष्ट) - अपेक्षा (अनिष्ट) - उदासीन (वशिष्ट)


अनपेक्षः शुचिर दक्षः उदासीनो गतव्यथः |
सर्व आरंभ परित्त्यागी, यो मद भक्तः, स मे प्रियः ||


इच्छा, जीवन का कारण है, और अपेक्षा मृत्यु का. इच्छा का बिना अपेक्षा के होना श्रेयस्कर है. एक आर्त (बीमार, असंतुष्ट, या दरिद्र) व्यक्ति की चेष्टा उसकी इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकती. इसी तरह, एक चिकित्सक की अपनी इच्छा उसे दया, सलाह और औषधि के लिए विवश कर सकती है. इस तरह स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, के मूल में श्रृद्धा और विश्वास स्थित होता है जो जीवन का एक मात्र आधार है. जबकि अपेक्षा एक व्यावसायिक (विषय युक्त) बंधन है, जो नियंत्रण पर आधारित होता है, और जिससे विश्वास का ह्रास होता है. अर्थात, विश्वास और अपेक्षा अलग अलग अर्थ रखते हैं. जिन पर विश्वास किया जा सकता है, उनसे अपेक्षा नहीं हो सकती. और जिनसे अपेक्षा होती है, उन पर विश्वास नहीं हो सकता.

हर इच्छा सृष्टि बन कर, युग युग (जन्म-जन्म) में पूरी हो जाती है और इस तरह मोक्ष की दूरी बढ़ती रहती है. केवल इस कारण इच्छा का चुनाव करना ही ज्ञान की परीक्षा है. परमात्मा जो सभी प्राणी के अंदर है, उसे अनुभव होता है, कि वरदान देना बहुत आसान है, क्योंकि यह स्वाभाविक है किन्तु वरदान माँगना कठिन है. व्यक्ति को यदि इच्छा पूर्ति की प्रकृति पर विश्वास हो जाय तो वह बहुत सारी इच्छा को स्वयं ही काट-काट कर, केवल वही चाहेगा जिसकी प्राप्ति के बाद उसे अन्य इच्छा न हो या उन इच्छाओं से कोई अपेक्षा न पैदा हो. इच्छाओं के अन्वेषण की क्रिया ही प्रार्थना है और वह सर्वोच्च इच्छा ही इष्ट कहलाती है.

वशिष्ट उसे कहते है जो यह जानता है, कि इच्छा ही कर्म और शुभ या अशुभ कर्म फल का कारण है. निष्काम कर्म (या बिन अपेक्षा के ) की अवस्था ही वशिष्ट है. सभी इच्छाएं उसके वश में हैं इस लिए उसे फल की उत्सुकता या अपेक्षा नहीं होती. इस स्थिति को उदासीन कहते हैं. इस स्थिति में क्रिया और इष्ट दोनों निर्द्वंद होते हैं और कोई व्यथा या कष्ट नहीं होता. वह कोई भी कार्य आरम्भ नहीं करता किन्तु जब किसी की इच्छा उसे दिखती है, तो वह अपनी इच्छा मात्र से उसे सफल बना देता है. परस्पर मन का यह योग किसी अपेक्षा से नहीं बंधता और यही मन या पुरुष या स्वभाव ही अध्यात्म कह लाता है. यही भक्ति और प्रेम है.

3 comments:

  1. aapka prayaas aur parisram sarahniye hai aapne itni choti si jagah balrampur se suruat karke aaj apne parishram se safalta ka naya adhyay likha hai aur apne parishram se balrampur ko gaurvanvit kiya hai. by:NISHANT PANDEY,balrampur,u.p.

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  2. नमस्ते माननीय मिश्रा जी ,
    आप के ब्लॉग पर इत्तेफाक से आना हुआ.और आ कर बहुत ही अच्छा लगा ,यहाँ आप ने श्लोकों के सरल अर्थ समझाए हैं.
    आप की इस पोस्ट का जिक्र मैं ने अपनी एक पोस्ट में किया है.
    http://alpana-verma.blogspot.com/2010/02/blog-post.html

    आभार,
    अल्पना

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  3. mishraji,
    aapki post padhhi, achha lagaa yah dekh kar ki aap geeta ke liye kuchh likh padhh rahe he.., yah hona chahiye, aapke dvara prastut shlok aour uske saar ke sandarbh me mene alpanaji ke blog par padhh kar tippani ki he..samay mile to vnhi padhhe aour apne vichaar aagami post par dene ka pryaas kare../ darasal mujhe lagaa ki chintan ho to gahan ho..geeta me bhagvaan ke shlok sirf ekadh arth liye nahi he isaliye..unki vyakhyaaye aaj tak hoti aa rahi he../kher..dhnyvaad aapka jo is karm ko aage nibha rahe he.

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In simple words, I can describe myself as a practitioner of the Bhagwat Gita and studying without destruction, to live; and ability to see the world in its format. When I will ever discover 'who am I', may be then I will let you know. But till that time, I believe 'work' is a means of self expression; and the work itself, in effortless and defenseless condition, is the introduction of true self.