Wednesday 16 September 2009

१६ सितम्बर २००९ >> इच्छा (इष्ट) - अपेक्षा (अनिष्ट) - उदासीन (वशिष्ट)


अनपेक्षः शुचिर दक्षः उदासीनो गतव्यथः |
सर्व आरंभ परित्त्यागी, यो मद भक्तः, स मे प्रियः ||


इच्छा, जीवन का कारण है, और अपेक्षा मृत्यु का. इच्छा का बिना अपेक्षा के होना श्रेयस्कर है. एक आर्त (बीमार, असंतुष्ट, या दरिद्र) व्यक्ति की चेष्टा उसकी इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकती. इसी तरह, एक चिकित्सक की अपनी इच्छा उसे दया, सलाह और औषधि के लिए विवश कर सकती है. इस तरह स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, के मूल में श्रृद्धा और विश्वास स्थित होता है जो जीवन का एक मात्र आधार है. जबकि अपेक्षा एक व्यावसायिक (विषय युक्त) बंधन है, जो नियंत्रण पर आधारित होता है, और जिससे विश्वास का ह्रास होता है. अर्थात, विश्वास और अपेक्षा अलग अलग अर्थ रखते हैं. जिन पर विश्वास किया जा सकता है, उनसे अपेक्षा नहीं हो सकती. और जिनसे अपेक्षा होती है, उन पर विश्वास नहीं हो सकता.

हर इच्छा सृष्टि बन कर, युग युग (जन्म-जन्म) में पूरी हो जाती है और इस तरह मोक्ष की दूरी बढ़ती रहती है. केवल इस कारण इच्छा का चुनाव करना ही ज्ञान की परीक्षा है. परमात्मा जो सभी प्राणी के अंदर है, उसे अनुभव होता है, कि वरदान देना बहुत आसान है, क्योंकि यह स्वाभाविक है किन्तु वरदान माँगना कठिन है. व्यक्ति को यदि इच्छा पूर्ति की प्रकृति पर विश्वास हो जाय तो वह बहुत सारी इच्छा को स्वयं ही काट-काट कर, केवल वही चाहेगा जिसकी प्राप्ति के बाद उसे अन्य इच्छा न हो या उन इच्छाओं से कोई अपेक्षा न पैदा हो. इच्छाओं के अन्वेषण की क्रिया ही प्रार्थना है और वह सर्वोच्च इच्छा ही इष्ट कहलाती है.

वशिष्ट उसे कहते है जो यह जानता है, कि इच्छा ही कर्म और शुभ या अशुभ कर्म फल का कारण है. निष्काम कर्म (या बिन अपेक्षा के ) की अवस्था ही वशिष्ट है. सभी इच्छाएं उसके वश में हैं इस लिए उसे फल की उत्सुकता या अपेक्षा नहीं होती. इस स्थिति को उदासीन कहते हैं. इस स्थिति में क्रिया और इष्ट दोनों निर्द्वंद होते हैं और कोई व्यथा या कष्ट नहीं होता. वह कोई भी कार्य आरम्भ नहीं करता किन्तु जब किसी की इच्छा उसे दिखती है, तो वह अपनी इच्छा मात्र से उसे सफल बना देता है. परस्पर मन का यह योग किसी अपेक्षा से नहीं बंधता और यही मन या पुरुष या स्वभाव ही अध्यात्म कह लाता है. यही भक्ति और प्रेम है.

Saturday 12 September 2009

सूर्यवार १२ सितम्बर २००९ युग, समय, दिन - रात्रि, काल (मृत्यु) का तत्व


युग, समय का तत्त्व है. युग का सामान्य अर्थ है जुड़ना. जो तभी संभव है जब दो अलग अलग दृश्य एक हो जायं.
समय, किन्ही भी दो घटनाओं के बीच की दूरी है. उदाहरण के लिए, "राम ने पेन्सिल खो दी" एक घटना है, और "राम ने पेन्सिल वापस पा ली", यह दूसरी धटना है. इन दोनों घटनाओं के बीच की दूरी, १ मिनट, या १ दिन या कभी नहीं, या समय की कोई मात्रा, हो सकती है. यह दूरी (या समय ) तब तक अनिश्चित है जब तक पेन्सिल दुबारा प्राप्त ( युग) नहीं होती. इस तरह, एक युग, १ मिनट, १ दिन या अनंत के बराबर है. इस उदाहरण का अर्थ है कि युग, सदैव दो घटनाओं के मिलने से ही बनता है.

समय, यद्यपि नापा तो जा सकता है किंतु पेन्सिल का मिलना (या युग), उस समय के नाप पर निर्भर नहीं है. ग्रहों की गति या घडी के सुइयों की गति समय के नाप के विभिन्न यन्त्र हैं किन्तु ये युग की परिभाषा नहीं बनाते. यह नहीं हो सकता कि हम घडी देखते रहें और एक निश्चित समय पर खोई हुयी पेन्सिल अपने आप मिल जाये. इसी तरह, सत युग, द्वापर, त्रेता, और कल युग, का कोई पहिले से तय कोई नाप नहीं होता. यह कभी नहीं कहा जा सकता, कि सत युग कितने वर्ष का होता है, या द्वापर की अवधि कितनी और किसने निश्चित की है?

वर्ष, ज्योतिष या ग्रहों की गति की गणना करने से युग के आने का इन्तजार कभी सफल नहीं हो सकता. गोस्वामी तुलसी दास ने राम चरित मानस में यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य के मन में चारों युग हमेशा ही बसते है. मन में सत गुण के उदय होने पर प्रसन्नता होती है, और वह स्थिति ही सत युग है. मन में तम गुण के प्रवेश होते ही निराशा या अन्धकार हो जाता है, और चारों ओर विरोध ही विरोध दिखता है, जो कल युग है.

ज्ञान के प्रकाश द्वारा काल का विक्रम
समय परिवर्तन या बदलाव का सूचक है. इस लिए, इसे क्रम भी कहते हैं. पेन्सिल के खोने की धटना के बाद ही पेन्सिल के पाने की घटना हो सकती है. इसलिए, समय, एक क्रम के आधीन होता है. जो भी इस क्रम का व्यतिक्रम कर जाता है, या उसे लाँघ कर पार कर लेता हैं, उसे ही विक्रम कहते हैं. उदाहरण के लिए १,2,3,4,5,6, .... क्रम है, किन्तु १,१० ,२० ,३० ..... या १,१०० ,२०० ,३०० .... विक्रम (वि +क्रम ) हैं. एक पैदल यात्री का हर कदम क्रम से ही चलता है, किन्तु सूर्य, पक्षी या हवाई जहाज उस दूरी को लाँघ कर शीघ्र पार कर लेते है. विक्रमादित्य का अर्थ, सूर्य का वह गुण है जो लाँघ लाँघ कर, समय की दूरी को कम कर देता है.



सहस्त्र युग पर्यंत मह्र्यद ब्रह्मणो विदुः | ८.१७

श्री कृष्ण इस बात को कहते हैं कि ब्राह्मण अर्थात जो ज्ञानी है, उसके लिए समय की मात्रा और अन्य लोगों की समय की मात्रा अलग अलग होगी. क्योंकि ब्राह्मण का एक दिन अन्य लोगों के सहस्त्र युगों के बराबर होता है. अर्थात जो यह जाता है कि पेन्सिल कहाँ खोई है, उसे ढूँढने में कम समय लगेगा, किन्तु जो अन्धकार में हैं, या वे पेन्सिल खोने के स्थान को नहीं जानते, वे उस खोई पेन्सिल को न जाने कब तक प्राप्त करेंगे.

रात्रिम युग सहस्त्रन्ताम; ते, होरा अत्र विदो जनाः || ८.१७

अर्थात ज्ञान का होना ही समय की मात्रा को कम कर सकता है और इस तरह, विक्रम या जो समय (होरा, hour) को लाँघने की विधि को जानता है, ब्राह्मण है. श्री कृष्ण के अनुसार, ब्राह्मण, काल या समय से बंधा नहीं होता, क्योंकि उसके लिए कोई कार्य अपूर्ण नहीं है, अपूर्णता, अपेक्षा या खोज की अनिश्चित स्थिति ही काल है. वह सदैव संतुष्ट व्यक्ति ही योगी है. और अंतहीन प्रतिक्रिया में समय का नाप लेते रहने और, उसे व्यतीत होते रहने किन्तु, युग के पूर्ण न होने को ही रात्रि कहते हैं.


आत्म ज्ञान और जन्म-मृत्यु
घटना क्या है? पेन्सिल का खोना और मिलना धटना क्यों हैं? श्री कृष्ण कहते हैं कि धटना अनंत संभावनाओं में से एक सम्भावना है. बालू के दो ढेर में से एक ढेर में से एक कण का दूसरे ढेर के एक कण से मिलान होने की सम्भावना ही युग है. योग्यता के अनुसार हर व्यक्ति के लिए युग का अनुभव अलग अलग होगा. पेन्सिल का अस्तित्व सदैव है किन्तु उसका न दिखना ही पेन्सिल का खोना है. और पेन्सिल का प्राप्त होना उसका पुनः देखा जाना है.


अव्यक्त| व्यक्त यः सर्वाः प्रभाव अन्त, हर आगमे |
रात्र्या आगमे प्रलीयन्ते, तत्र एव व्यक्त संज्ञके || ८.१८


किसी दृष्टा का अव्यक्त और व्यक्त दोनों को एक जानने की विधि ही ब्रह्म है. अव्यक्त ही ज्ञान के प्रकाश में व्यक्त या दिखने लगता है, और व्यक्त पुनः रात्रि के आगमन होने पर अव्यक्त हो जाता है. श्री कृष्ण ने यह कहा है कि योगी अव्यक्त को जानता है, इसलिए अन्य लोगों की रात्रि उनके लिए दिन के प्रकाश जैसा है. और देखे गए भ्रम से बनी सृष्टि उनके लिए रात्रि है. यह मन (स्वभाव) और बुद्धि (स्मृति) पर, प्रकृति के प्रभाव हैं. प्रकाश के न रहने को रात्रि और प्रकाश के रहने को दिन कहते हैं. पेन्सिल और पेन्सिल को खोने और पाने वाला, प्रकृति के प्रभाव से ही परिभाषित हैं. धटना का निर्धारण पेन्सिल नहीं करती, वह दृष्टा और उसके ज्ञान के प्रकाश पर निर्भर है. अर्थात, काल या समय या घटना, दृष्टा या जीव की ही रचना है.

भूत ग्रामः स एवा यं, भूत्वा भूत्वा प्रलीयते |
रात्रि आगमे, अवशः पार्थ; प्रभाव अन्त, हर आगमे || ८.१९


मृत्यु, दृष्टा की नहीं होती बल्कि उन घटनाओं या काल की होती है. कुछ न कुछ, बार-बार, व्यक्त और अव्यक्त तो होता ही रहता है. ज्ञान के अभाव या रात्रि में, प्राणी अवश (या होश में नहीं रहता) कितु ज्ञान होने पर, या दिन के आगमन होने पर, अज्ञान का वह प्रभाव नहीं होता. दृष्टा के लिए सारी सृष्टि का अव्यक्त हो जाना ही सृष्टि की मृत्यु है, और पुनः आत्मा के प्रकाश में उसके द्वारा ही नए सृष्टि की रचना होती है.



बहुत लोग सोचते हैं आँखे देखती हैं, किन्तु कुछ लोग देखने के लिए प्रकाश को कारण मानते हैं. दृष्टा तो अँधेरे में भी बुद्धि, तर्क या स्मृति के प्रकाश द्वारा देखता है और संसार से विमुख हो कर अवचेतन निद्रा में स्वप्न की स्थिति, और समाधि की चिर-निद्रा में अध्यात्म का दर्शन करता है. अर्थात दृष्टा, आँखों (इन्द्रियों और मन सहित) व प्रकाश (भौतिक प्रकाश और आध्यात्मिक संवेदनशीलता) दोनों का ही नियंता है. अर्थात दृष्टा का ज्ञान ही प्रकाश है, जिसकी मृत्यु नहीं हो सकती और वह उस अकाल तत्व 'सत्य' को जान गया है. "सत श्री अकाल, बोले सो निहाल " गुरु नानक ने सत को अकाल कहा है.

संतुष्ट रहना तभी संभव है जब काल का प्रभाव न हो. अर्थात, दृष्टा को सृष्टि में हो रही व्यक्त -अव्यक्त घटनाओं से कोई अपेक्षा न हो. वह युग के अन्दर न रहे, अर्थात दो घटनाओं के बीच अपेक्षा की स्थिति (काल) में न रहे. उसे युग-पर्यंत या युग के बाहर रहना चाहिए. व्यक्ति के सफलता के लिए उसे वह कार्य करना चाहिए जो उसे करना है, न कि मजबूरी या लालच या भय के वश. इस तरह व्यक्ति, काल या व्यक्त सृष्टि की मृत्यु से नहीं घबराता. इन योगी पुरुषों को युग पुरुष या युग परिवर्तक भी कहते हैं. राम, कृष्ण, बुद्ध ने युग परिवर्तन कर दिखाया .

आइंस्टाइन ने भौतिक समय की खोज में सारा जीवन लगा दिया. उनका ध्यान, दृष्टा और ज्ञान के प्रकाश में मन वांछित संतुष्टि की खोज न थी. उन्होंने गणित या सांख्य योग के द्वारा सृष्टि के भौतिक नियमो की खोज कर उन्होंने यह पाया कि समय सापेक्ष है. वे सृष्टि के मूल आधार का पता न लगा सके. प्रकाश की गति भौतिक सृष्टि में अधिकतम सीमा है. जो लोंग देख नहीं सकते उनकी सृष्टि की सीमा ध्वनि की गति पर निर्भर है, जो प्रकाश की गति से देखे जाने वाले सृष्टि से छोटी होगी. यदि प्रकाश की गति दुगुना हो जाय या हमारी आँखे दुगुनी शक्ति से (टेलिस्कोप से ) देखें तो दूर की वस्तु नजदीक दिखेंगी. इस उदाहरण का अर्थ सिर्फ इतना है कि प्रकृति में क्या दिखता है, या देखा जाना है, उसका आधार दृष्टा और आत्मा का अक्षर प्रकाश है. ध्यान की विधि, मन को टेलिस्कोप बना देती है. इस से काल की रात्रि या (प्रकाश की गति से सीमित) समय की गणना के दूर साफ साफ देखा जा सकता है.


Tuesday 7 July 2009

४ जुलाई २००९ शनिवार


८.१ अर्जुन उवाच
अधि भूतं च किं प्रोक्तम, अधि दैवं किं उच्च्यते ?
हे पुरुषोत्तम श्री कृष्ण,"अधि भूत" किसे कहते हैं, और आपने "अधि दैव" किसे कहा है?

८.२ अर्जुन उवाच
अधि यज्ञः कथं को अत्र देहे अस्मिन मधु सूदन
प्रयाण काले च कथं ज्ञयो असि नियतात्म भिः

हे मधु-सूदन श्री कृष्ण, आप के द्वारा जिसे "अधि यज्ञ" कहा गया है, जो इस देह में सदैव होता रहता है, वह क्या है? और इस देह धारण के काल की समाप्ति पर ज्ञात होने वाले, अर्थात आत्म ज्ञान में स्थिर होने की दशा क्या है?

८.४ श्री भगवन उवाच
"अधि भूतं" क्षरो भावः, पुरुष श्च "अधि दैव" तं
"अधि यज्ञ" अहम् वा अत्र देहे, देह भृताम वर


श्री कृष्ण उत्तर में कहते हैं, कि देह धारियों में श्रेष्ठ हे अर्जुन, भाव (भौतिक या सांसारिक प्रभाव) अर्थात प्रतिक्रियात्मक या सक्रिय तत्व जो स्वभाव नहीं है, उसका क्षय या कम होना ही "अधि भूत" है. इसका अर्थ है कि कर्म, (स्वभाव से या) मौलिक होना चाहिए, भाव से (मजबूरी, दिखावा, अंहकार, या भय या किसी अपेक्षा के कारण) नहीं. इसका अर्थ यह भी है कि (बौद्धिक) कर्म से (मन का) स्वभाव कभी नष्ट न हो. स्वान्तः सुखाय निष्काम कर्म उसका एक उदाहरण है. स्वभाव की रक्षा कर पाना ही वीरता है. अर्थात जो सही गलत को निष्पक्ष जानता है, दृढ निश्चयी है, वही वीर है.

मन की शुद्धता अर्थात निर्मल पुरुष ही "अधि दैव" है. मन की शुद्धता, आत्म ज्ञान में प्रवृत्ति, भगवत भक्ति, और सांसारिक तत्वों के मूल कारण को जान लेने के संतोष से मिलती है. एक बार मन जब साफ़ होने लगता है, तो वह दुबारा सांसारिक गंदगी में नहीं जाना चाहता. उसकी इच्छाएं अपने आप शांत होने लगती हैं और देवताओं के सहयोग से वह इसमें सफल भी हो जाता है.

हे देह धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, मेरे अतिरिक्त "अधि यज्ञ" कौन है? अर्थात इस देह में "अधि यज्ञ" मैं (परमात्मा का स्वरुप) हूँ. देह की समाप्ति केवल एक जीवन या अनगिनित जीवन-मृत्यु की बात नहीं है, जब जब, प्राणी की चेतना या मन, पुनः देह धारण करता रहता है, उसे अपने मन में आत्म-ज्ञान का अनुभव नहीं होता. और, जब उसका ध्यान, इस ओर जाता है, उसका देह त्याग या प्रयाण या मोक्ष सफल हो जाता है.

Tuesday 23 June 2009

23 जून २००९ मंगलवार

शिशु पार्थ के साथ उनके वृद्ध पितामह कृष्ण गोपाल मिश्र

८.१ अर्जुन उवाच
किं तद ब्रह्म, किं अध्यात्मं, किं कर्म, पुरुषोत्तम ?
हे पुरुषोत्तम श्री कृष्ण, वह जिसे आप ने ब्रह्म कहा है वह क्या है? अध्यात्म क्या है, और कर्म क्या है?
८.३ श्री भगवान उवाच
अक्षर ब्रह्म परमं, स्वभाव अध्यात्म उच्च्यते
भूत भाव उदभव करो, विसर्गः कर्म संजितः


अक्षर ब्रह्म परमं
जिसका नाश कभी नहीं होता, उसे ही ब्रह्म कहते हैं. उदाहरण के लिए, वैज्ञानिक भी अब जान गए हैं कि प्रकृति की सभी शक्तियां और ज्ञान जो सभी वस्तुओं और जीव में निहित हैं वे ब्रह्म ही हैं क्योंकि उनका एक रूप से दुसरे रूप में परिवर्तन तो होता है. किन्तु नाश कभी नहीं होता. जो तत्व ज्ञानी, श्री कृष्ण द्वारा दी गयी ब्रह्म की इस परिभाषा को जान लेते हैं, वे ब्रह्म को समस्त विश्व में हर जगह और हमेशा देखते हैं.
स्वभाव अध्यात्म उच्च्यते
स्वभाव ( स्व अर्थात मौलिक और भाव अर्थात गुण) अर्थात मनुष्य का (सहज या निर्मल) स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है. अध्यात्म का मौलिक होना यह सिद्ध करता है कि यह बाहर से सीखा नहीं जा सकता, जो भय या प्रतिक्रिया या अपेक्षा से रहित है, और उसका प्रमाण वह स्वयं है. नवजात शिशु का स्वभाव, अध्यात्म का प्रत्यक्ष दर्शन है.
भूत भाव उदभव करो, विसर्गः कर्म संजितः
भाव, जो स्व+भाव नहीं है, और जो सीखा जा सकता है, प्रमाण द्वारा, तर्क से सिद्ध है, और प्रतिक्रिया या एक दूसरे की अपेक्षा के लिए होता है, उससे ही भौतिक संसार की सृष्टि होती है. इस प्रतिक्रिया में लगने वाले भाव जिस से सृष्टि का उदभव होता है,वही कर्म है.

अध्यात्म (अर्थात "स्व+भाव" ) में कर्म फल की अपेक्षा नहीं होती क्योंकि वह मौलिक या स्वयं से ही उद्भूत है जबकि "भूत + भाव " (अर्थात भौतिक या सांसारिक ज्ञान), कारण और फल (cause and effect) से बंधा है. संत तुलसी दास ने इसे इस तरह लिखा "करम प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करै, सो तस फल चाखा".

विश्व या संसार, एक रचित या प्रतिक्रिया से निर्मित कर्म-क्षेत्र है, इस युद्ध को ज्ञान और भगवत कृपा से विजय करने के उपरांत ही, अध्यात्म प्राप्त होता है. अर्थात, आत्मा में प्रवेश के लिए मन के द्वार एक एक कर खुलने लगते हैं. कर्म के फल शुभ और अशुभ दोनों ही हो सकते हैं,जिस पर उसका अधिकार नहीं होता, और भौतिक शास्त्र के प्रभाव और परिस्थितियां उसको करने के लिए विवश करती है. इस लिए कर्म फल के त्याग से ही, मनुष्य, कारण रूपी मन, और स्वभाव को जानने का प्रत्न कर सकता है.

Sunday 17 May 2009

१७ मई 2009

पिता -पुत्र (प्रभात - पार्थ )
६. ४६ श्री भगवान उवाच
तपस्विभ्यो अधिको योगी ज्ञानि भ्योपि मतो अधिकः
कर्मभ्य्श्च अधिको योगी तस्माद योगी भवार्जुन


निर्गुण पुत्र का माँ या पिता के मन के गोद में रहना ही योग है.चाहे वे कहीं भी रहें. योग का सम्बन्ध निर्गुण है. योगी, प्रेम या योग का स्वतः पात्र है, उसे कुछ भी करना शेष नहीं होता. न तप, न ज्ञान, न कर्म. परम पिता श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुम मेरे पास सिर्फ रहो. उपासना (उप +आसन या मन के समीप रहना ) ही पर्याप्त है. मेरे प्रेम का पात्र बनने की और कोई योग्यता नहीं है. तुम्हारे ऊपर के प्रकृति के सभी प्रभाव या संसार के गुण मैं धो दूंगा, इसलिए तुम मुझे गंदे भी प्रिय हो. योग का यह निर्गुण तत्त्व, तुम्हारे मन और बुद्धि से परे है. मेरा यह मत सिद्ध है.


माँ - पुत्र (वर्तिका - पार्थ)
योगी को न तो तप, न ही ज्ञान, न ही कर्म छू सकता है. ये प्रकृति के तीन गुंणों से निवृत्ति के ही मार्ग हैं. योगी बिना किसी प्रयत्न के ही संतुष्ट है इस लिए हे अर्जुन योगी बन. माँ की तरह श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं मैं तो हूँ न तुम्हारे ऊपर प्रकृति या संसार के प्रभाव को धोने और तुम्हे शुद्ध करने के लिए ? उपासक बन, तुम कुछ और मत कर. इस निर्गुण (निर्लिप्त) अवस्था में तुम मुझे गंदे ही सबसे अच्छे लगते हो.

Yogi is superior to tapah (non reaction or prudential endurace) as well as the zyani (act of learning, or on the path of inquiry). Yogi is also superior to the karmi (sincere action but without attachment) and therefore hey Arjun, be Yogi.

Saturday 2 May 2009

३ मई २००९


१०.९ श्री भगवान् उवाच
मत चित्तः मद गतः प्राणा बोधयन्तः परस्परम
कथयन्तश्च माम नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च

"मत चित्तः" श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मेरे निर्विकल्प (निश्काम) एक संकल्प द्वारा बनाये गए, चित्र या ड्राइंग से ही सम्पूर्ण विश्व बना है. जबकि मेरे ही अष्टधा प्रकृति (नियम और गुंणों से)के द्वारा निर्मित उस देखे, सुने, स्पर्श, गंध, स्वाद, बुद्धि,अंहकार और मन से जान सकने वाले विश्व में, मैं नहीं हूँ.
"मद गतः प्राणा" तब अर्जुन उस चित्र को देख, विश्व की कल्पना कर ही सहम से गए. यह देख, श्री कृष्ण ने उन्हें आक्सिजन सिलिंडर या उतनी श्वास या प्राण वायु दे दी जो उनके विश्व में रहने की अवधि तक के लिए चाहिए.
"बोधयन्तः परस्परम" श्री कृष्ण ने अर्जुन से तब कहा, कि तुम विश्व के अस्तित्व के इस रहस्य को मुझ से समझ लो. इसके लिए तुम इस घनघोर विश्व के अन्दर जा कर मेरे ही ड्राइंग या चित्र से बने, मेरे ही दिए गए सांस को ठीक से लेते हुए (अर्थात जीवित अवस्था में), प्रकृति के भव (मूर्ति मान)सागर को देखो और समझो.
"कथयन्तश्च माम नित्यं" साथ ही तुम्हे,अपने मन के टेलीफोन द्वारा लगातार मुझ से बात करना कभी नहीं भूलना चाहिए.
"तुष्यन्ति च रमन्ति च" और इस तरह तुम विश्व में संतुष्ट रह कर जहाँ चाहो वहां घूमते रहो. हे पार्थ, तुम्हारी यह स्मृति कभी नष्ट न हो. इस तरह तुम इस विश्व को तत्त्व से जान कर, जा कर, वापस आओ.

मत चित्तः Sri Krishna like a typical architect, carries with Him His drawing or picture ( चित्तः , चित्र ) of the entire physical universe; and desired it to explain it to Arjun. Arjun, who never saw such a mind boggling design of the physics (physical reality), was absolutely clueless; and could not even properly breath. He (Arjun), could not even imagine entering the world, of which only the design/drawings or picture are shown. मद गतः प्राणा Sri Krishna then gives गतः Arjun the breath प्राणा so that he remains alive to whatever time he is inside it (the world of which the picture is shown). बोधयन्तः परस्परम After this, Arjun began understanding बोधयन्तः the design of the universe, step by step, very carefully together परस्परम with Sri Krishna.
कथयन्तश्च माम नित्यः Worried Krishna, then reminds Arjun who goes inside the universe (or the physical reality), to keep talking कथयन्तश्च without any interruption. Like a worried mother giving her child a telephone connection when it leaves to an alien place. This connection, is the only way of remaining in constant touch नित्यं between one another. This talking, is neither daily, nor even five times a day but constant, continuous, and without any interruption. तुष्यन्ति च रमन्ति च Relaxed with these arrangements, Sri Krishna thus, says to Arjun (who is now inside the world, of the design shown) to remain always satisfied तुष्यन्ति wherever he goes in the world रमन्ति and do whatever he wishes to. Arjun, with the knowledge of system design and seeing it getting manifested in the world, and with constant talking to Krishna, is never afraid and stays enlightened.

Tuesday 28 April 2009

आप सब को मेरा पहिला सादर प्रणाम


७८/ १८ संजय उवाच
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः .
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम

Where is the Yogeshwar Krishna (truth) and the Parth, holding the precise intellect i.e., Bow and Arrow ( intellience). At that place, as per my mind (मतिर्मम ). this policy (नीति ) makes the special victory ( "श्रीर्विजयो" where none is losers) certain (भूतिर्ध्रुवा) .

Foreword by K G Misra

Looking at new born is like a pure god before us. He does not (and need not) know us and we do not know him. He knows only Love. He belongs to all, and is without any prejudices, unless some one staked a claim over Him and made Him a prisoner of untruth.

I prey to Sri Krishna for Him. He(temporarily identified as, Parth) is coming into the world, and should provide a relief to it (the world), and get Himself relieved. And by constant devotion to the Truth, He, be able to endure all pains and pleasures; and remains unattached, and follow the path of self realization. Sri Krishna holds his finger and takes him till end of the journey of this life, and it can never slip. He, thus remains enlightented and should be not adversely affected by worldly competence and attractions.

He (Parth) has come a long way with multitudes of births and deaths, and is in a state of this awareness. He is of stronger will and knows that birth is no easier than death. At his birth, it worried all of us, to find that birth and death is together at all moments. These (birth and death) are critical phases in one's unfinished journey of lives.

Parth पार्थ is born from Prabhat & Vartika, today 28th April 2009 at 10.32 AM Gurgaon India. He, just when entrering the world made two major selections. One, Vartika (the Mother Parvati पार्वती, i.e., who makes him pure पवित्र hearted, cleans (undesirable thougths) the container (of his intellect) in a careful and tender way. The mother makes Parth worthy to receive the knowledge, content. And two, Prabhat (the Father Shiva शिव, giver of the knowledge, content. Shiv, is also Shankar शंकर. A father removes of all doubts शंका, by explanation and demonstration. These two first Gurus protect him from mis-guidances, and give all the opportunity and free will to let him find his own vision of the Truth (the supreme destination इष्ट Sri Krishna कृष्ण ).

May the God bless All.

In Attendence
Prabhat & Vartika
HariRam Tiwari & Vimla
Garima & Diwakar % Bhavya
Vivek, Hareesh, Kumud
Rukmini & K G
Shakutala & Mukti Narayan

Short notes:
Q1: What is पार्थ ?
A1: He is son of पृथा .
Q2: Who is पृथा ??
A2: The Earth, पृथ्वी, पार्थिव or Soil (dead, without knowledge) Thus, Parth is "son of soil".
Q3: Who is Krishna?
A3: He is Truth or awareness of Self or the Seed which is never lost in cycles of birth and death.
Q4: Why are Krishna and Prath together?
A4: Where Seed and Soil are together, it nurtures of Universe.
Q5: Who in the Bhagwat Giita spoken (public anouncement) it ?
A5: ७८/ १८ संजय उवाच
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः .
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम

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In simple words, I can describe myself as a practitioner of the Bhagwat Gita and studying without destruction, to live; and ability to see the world in its format. When I will ever discover 'who am I', may be then I will let you know. But till that time, I believe 'work' is a means of self expression; and the work itself, in effortless and defenseless condition, is the introduction of true self.