Sunday 17 May 2009

१७ मई 2009

पिता -पुत्र (प्रभात - पार्थ )
६. ४६ श्री भगवान उवाच
तपस्विभ्यो अधिको योगी ज्ञानि भ्योपि मतो अधिकः
कर्मभ्य्श्च अधिको योगी तस्माद योगी भवार्जुन


निर्गुण पुत्र का माँ या पिता के मन के गोद में रहना ही योग है.चाहे वे कहीं भी रहें. योग का सम्बन्ध निर्गुण है. योगी, प्रेम या योग का स्वतः पात्र है, उसे कुछ भी करना शेष नहीं होता. न तप, न ज्ञान, न कर्म. परम पिता श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुम मेरे पास सिर्फ रहो. उपासना (उप +आसन या मन के समीप रहना ) ही पर्याप्त है. मेरे प्रेम का पात्र बनने की और कोई योग्यता नहीं है. तुम्हारे ऊपर के प्रकृति के सभी प्रभाव या संसार के गुण मैं धो दूंगा, इसलिए तुम मुझे गंदे भी प्रिय हो. योग का यह निर्गुण तत्त्व, तुम्हारे मन और बुद्धि से परे है. मेरा यह मत सिद्ध है.


माँ - पुत्र (वर्तिका - पार्थ)
योगी को न तो तप, न ही ज्ञान, न ही कर्म छू सकता है. ये प्रकृति के तीन गुंणों से निवृत्ति के ही मार्ग हैं. योगी बिना किसी प्रयत्न के ही संतुष्ट है इस लिए हे अर्जुन योगी बन. माँ की तरह श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं मैं तो हूँ न तुम्हारे ऊपर प्रकृति या संसार के प्रभाव को धोने और तुम्हे शुद्ध करने के लिए ? उपासक बन, तुम कुछ और मत कर. इस निर्गुण (निर्लिप्त) अवस्था में तुम मुझे गंदे ही सबसे अच्छे लगते हो.

Yogi is superior to tapah (non reaction or prudential endurace) as well as the zyani (act of learning, or on the path of inquiry). Yogi is also superior to the karmi (sincere action but without attachment) and therefore hey Arjun, be Yogi.

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In simple words, I can describe myself as a practitioner of the Bhagwat Gita and studying without destruction, to live; and ability to see the world in its format. When I will ever discover 'who am I', may be then I will let you know. But till that time, I believe 'work' is a means of self expression; and the work itself, in effortless and defenseless condition, is the introduction of true self.