Thursday, 8 April 2010
Bhagwat Giita 8.1, 8.3, 8.4
८.१
किं तद ब्रह्म किम अध्यात्मं, किं कर्म पुरुषोत्तम |
अधिभूतं च किम प्रोक्तं अधिदैवं किम उच्यते ||
हे पुरुषोत्तम श्री कृष्ण वह जिसे आप ब्रह्म कहते हैं, वह क्या है. अध्यात्म क्या है और कर्म क्या है.
अधि अर्थात प्रवेश या मुक्ति का मार्ग. अर्थात आत्मा में जाने वाले प्रवेश मार्ग को अधि + आत्म या अध्यात्म भी कहते हैं. इसी तरह, भूत या सांसारिक व्यक्तित्व की प्राप्ति ही अधिभूत ( अधि भूत या भूत या व्यक्तित्व में जाने वाला प्रवेश) कहलाता है, और देवता बनने का मार्ग ही अधिदैव (अधि दैव) है.
हे श्री कृष्ण, आप किसे अधिभूत कहते हैं, और अधिदैव का उच्चारण अर्थात आप के इस शब्द का अर्थ क्या है.
८.३
अक्षरम ब्रह्म परमम् ... स्वभावो अध्यात्म उच्यते |
भूत भावो उद्भव करो .. विसर्गः कर्म संजितः ||
८.४
अधि भूतः क्षरो भावः, पुरुषश्च अधिदैवतं |
अधि यज्ञो अहम् वाटर, देहे देह्भ्रितम वरं||
जन्म और मरण से मुक्त उस अविनाशी मूल प्रकृति और उस निष्चल, दृढ निश्चय और संतुष्ट मूल प्रकृति को अनुभव से जान लिए गए ज्ञान को सत्य ही ब्रह्म कहते हैं. वह सत्य है और वह सद्दैव ही हर प्राणी की चेतना में स्थित रहने वाला है. अकेले रहने पर या ध्यान में, या प्रेम में, वही ब्रह्म अन्दर से बैठा हुआ बातें करता है और निर्भीक चेष्टा करता है. सभी प्राणी, ब्रह्म के ही प्रमाण हैं .
स्वभाव अर्थात स्व (अपनी इच्छा ) और भाव (लेन देन ) को ही अध्यात्म कहते हैं. बिना किसी अपेक्षा के, जो कार्य स्वान्तः सुखाय हो, वही अपनी इच्छा है. अर्थात उस कार्य से परम-आनंद मिलता है, और उस अनंत की प्राप्ति का लेन देन का कोई गणित नहीं किया जाता. स्वभाव या स्वधर्म को जानने की विधि ही अध्यात्म है. तुलसीदास, कबीर, गाँधी, आइन्स्तैन का स्वभाव इसका प्रमाण है.
कर्म किसी अपेक्षा के कारण और लेन देन से ही होता है, इसलिए यह स्व भाव नहीं है. इसे भाव से उत्पन्न हुआ जान ले. लेन-देन के इस दिखावे को ही संसार कहते हैं. यह दिखावा बढ़ता ही जायेगा, क्योंकि इस खेल में लोगों के अलग अलग व्यक्तित्व होते हैं, और कोई भी अपने को पहिचान नहीं पा रहा है, जबकि प्रारब्ध के कारण कर्म का भाव तो रहता है, किन्तु यह नहीं जान पाते कि परस्पर इस बंधन का क्या कारण हो सकता है. स्वभाव में स्व के नष्ट होने से सिर्फ भाव ही बचता है, और यदि स्वभाव को प्राप्त न किया जाय तो यही कर्म, व्यवसाय या कर्म बंधन बन जाता है.
देवता उस स्थिति को कहते हैं, जो स्वभाव में पूर्ण है, अध्यात्म के उदाहरण, और कर्म से पूर्णतः मुक्त है. किन्तु स्वभाव के कारण, अनवरत निष्काम कर्म करते रहते हैं. प्रकृति के नियम ही अप्रत्यक्ष देवता हैं, और सूर्य, पृथ्वी, जल आदि प्रत्यक्ष देवता हैं. वैज्ञानिक, या संत जब प्रकृति के उन अविनाशी किन्तु अप्रत्यक्ष नियमो को खोजता है, तब उस कार्य को देवता की आराधना कहते हैं. देवता ही अधिदैव है. उन्हें ही पुरुष कहते हैं. इनका काम स्वतंत्र किन्तु किसी की अपेक्षा पर निर्भर नहीं होता. आग से भयंकर दुर्धटना हो सकती है, किन्तु आग अपना स्वभाव नहीं बदल सकता. देवता, स्वभाव में ही स्थिर होते हैं. जो व्यक्ति अपने स्वभाव को जान ते हैं, वे देवता की तरह बिना किसी अपेक्षा, भय या अन्य कारण के स्वतः अपना कार्य करते रहते हैं.
यज्ञ, योग की क्रिया है. यह क्रिया हर प्राणी के ह्रदय में स्थित परब्रह्म श्री कृष्ण स्वयं ही करते हैं. स्व-भाव में से भाव की समाप्ति कर केवल स्व अर्थात आत्म या ब्रह्म में परिवर्तन की विधि यज्ञ है. स्वभाव, दो शब्द 'स्व' और 'भाव' से मिल कर बना है. यज्ञ के द्वारा भक्ति और इस भक्ति से हुए शुद्ध स्व या ब्रह्म या सत्य की प्राप्ति होती है, और इस तरह लगातार होते हुए यज्ञ द्वारा स्व-भाव में से उतरोत्तर भाव घटता है. ऋषि बाल्मीकि, एक डाकू थे किन्तु उनका स्वभाव परिवर्तित हो गया और वे ब्रह्म लीन संत हो गए. श्री कृष्ण की कृपा से यज्ञ यही है. ज्ञान, इस यज्ञ में पवित्र अग्नि देवता अर्थात अध्यात्म या स्वभाव की स्थिरता है, और होत्र या समिधा ही व्यक्तित्व, अज्ञान या, गुणों से बना सांसारिक परिचय जिसे भूत भी कहते हैं, है.
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- KRISHNA GOPAL MISRA
- In simple words, I can describe myself as a practitioner of the Bhagwat Gita and studying without destruction, to live; and ability to see the world in its format. When I will ever discover 'who am I', may be then I will let you know. But till that time, I believe 'work' is a means of self expression; and the work itself, in effortless and defenseless condition, is the introduction of true self.